स्वर्णिम दुनिया की दौड़ देख, दुख तो मन में होता है
स्वर्णिम दुनिया की दौड़ देख, दुख तो मन में होता है ।
बदलें हैं यहाँ मापदंड अब, कौन चैन से सोता है ।।
जिसके पास है कमी धन की, वह रोता धन पाने को ।
अति है जिसके पास यहाँ भी, सोता नहीं चिंता में ।
स्वर्णिम विश्व की रचना में परेशानी यह नई ।
बदलें हैं यहाँ मापदंड अब, कौन चैन से सोता है ।।
"मैं ही मैं" में जीता इंसान, निज सुख चैन गँवाता है ।
पर दुख पर कष्ट में है अपना सुख, स्वधर्म यही अपनाता है ।
स्वर्णिम विश्व की रचना में, एक और ये परेशानी नई ।
चोरी को न समझे पाप वह, कृष्ण प्रथा बतलाता है ।
सीख सका न कृष्ण कथनी को, कर्म राम के न करता है ।
बदलें हैं यहाँ मापदंड अब, कौन चैन से सोता है ।।
स्वर्णिम विश्व की रचना में, ईश्वर से वह तुलना करता है ।
देश कहाँ समाज कहाँ वह घर-घर में आग लगाता है ।
मोह, लोभ, मद, काम के कारण, कंटक शूल बिछाता है ।
स्वर्णिम विश्व की रचना में, फूट फैली ही हुई है जग में ।
बस अत्याचार से अब सृजन बरिया है ।
बदलें हैं यहाँ मापदंड अब, कौन चैन से सोता है ।।
काल कूट के विष से भी, भयंकर का यहाँ आया है ।
स्वर्णिम विश्व की रचना में, मानवता का नाश हुआ ।
पहन ले अब वह चोला, कर शंखनाद अब विश्व बोला ।
सुनो युवा शक्ति विश्व की करो सृजन विकास अब ।
विनाश की ही लहरों से सृजन की महक समझो ।
करो स्वर्णिम विश्व की रचना
नही परेशानी हो जिसमें कोई
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Nice Sir Ji
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